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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 समाजशास्त्र

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :180
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2797
आईएसबीएन :0

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समाजशास्त्रीय चिन्तन के अग्रदूत (प्राचीन समाजशास्त्रीय चिन्तन)

प्रश्न- टालकाट पारसन्स का "सामाजिक क्रिया" का सिद्धान्त प्रस्तुत कीजिये।

उत्तर -

सामाजिक क्रिया का सिद्धान्त (The Theory of Social Action) - सामाजिक क्रिया की प्रकृति तथा धर्म का एक क्रमबद्ध व समाजशास्त्रीय मनोवैज्ञानिक विश्लेषण श्री टालकॉट पारसन्स ने अपनी पुस्तक "स्ट्रक्चर आफ सोशल एक्शन में, जो कि सन् 1937 में प्रकाशित हुई थी, सर्वप्रथम प्रस्तुत किया था। इस पुस्तक में इन्होंने परेटो, दुर्खीम, वेबर आदि विद्वानों के कार्य सम्बन्धी सिद्धान्तों का विश्लेषण प्रस्तुत किया। इनके अनुसार श्री परेटो की इस सम्बन्ध में मुख्य देन "विशिष्ट चालक तथा "अतर्कसंगत क्रियाएँ हैं। इन्होंने यह प्रमाणिक करने का प्रयत्न किया है कि सामाजिक जीवन में किस प्रकार अतर्कसंगत क्रियाओं का बोलबाला है जो कि विशिष्ट चालक, भ्रान्ततर्क आदि से प्रेरित होती रहती हैं। श्री दुर्खीम की मुख्य देन यह है कि इन्होंने क्रिया के गैर-प्राकृतिक आदर्शात्मक तत्व के सम्बन्ध में हमें अधिकतम सचेत रहने का निर्देश दिया है। उनके अनुसार सामाजिक घटनाओं का निर्धारण गैर-प्राकृतिक या सामाजिक कारकों द्वारा ही होता है और भी स्पष्ट शब्दों में 'समाज' ही सामाजिक घटनाओं को जन्म देता है। वेबर ने अपनी सामाजिक क्रिया की अवधारणा में प्रातीतिक अर्थ तथा दूसरे व्यक्तियों के प्रभाव पर अत्यधिक बल दिया है। श्री पारसन्स ने अपनी उपरोक्त पुस्तक में लिखा है कि यदि हम इन विद्वानों के विचारों की सम्मिलित रूप से विवेचना करें तो उसके आधार पर हम क्रिया के एक नवीन सिद्धान्त के लिए मुख्य तत्वों का सरलता से ही आविष्कार कर सकते हैं। जैसे ही इन तत्वों का समन्वय किया जायेगा, वैसे ही क्रिया का एक नया सिद्धान्त सामने आ जाएगा। श्री पारसन्स के अनुसार क्रिया की इस नवीन सामान्यात्मक व्यवस्था के चार तत्व हैं-

1. वंशानुसंक्रमण तथा पर्यावरण जो कि क्रिया की अन्तिम अवस्थाएँ या शर्तें
2. साधन और साध्य या लक्ष्य
3. अन्तिम मूल्य
4. उद्योग या प्रयत्न'।

1. वंशानुसंक्रमण तथा पर्यावरण - इस तत्व के अंतर्गत क्रिया के दो आधारों का उल्लेख मिलता है एक तो कर्ता की प्राणि शास्त्रीय विरासत तथा दूसरी उस कर्ता की वह सम्पूर्ण बाहरी दुनिया या परिस्थितियाँ जो कुछ भी उसे घेरे हुए हैं। समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से सम्पूर्ण पर्यावरण भौतिक- अभौतिक वस्तुओं और परिस्थितियों तथा मानव का वह घेरा है जो कि एक व्यक्ति की बाहरी व भीतरी दोनों अवस्थाओं को प्रभावित करता है इस प्रथम तत्व वंशानुसंक्रमण तथा पर्यावरण को एक- दूसरे दृष्टिकोण से भी समझाया जा सकता है। अपने माता-पिता से प्राणी के मूल रूप में जो कुछ भी शारीरिक और मानसिक विशेषताएँ प्राणि- शास्त्रीय प्रक्रिया के द्वारा प्राप्त होती हैं, उन्हें हम वंशानुसंक्रमण कहते हैं। ये शारीरिक और मानसिक विशेषताएँ वह कच्चा माल होती हैं जिससे पर्यावरण उस समाजशास्त्रीय प्राणी को एक सामाजिक प्राणी में बदल देता है या उसके सामाजिक व्यक्तित्व का निर्माण होता है। क्रिया में वह सामाजिक व्यक्तित्व ही "अन्तिम शर्त" है अर्थात् व्यक्ति का अपना व्यक्तित्व उन प्रेरणाओं तथा मूल्यों व आदर्शों को प्रदान करता है जो कि व्यक्ति की क्रियाओं की दिशा व स्वरूप को निर्धारित करते हैं।

2. साधन और साध्य या लक्ष्य - कार्य को लक्ष्य प्रभावित करते हैं या यूँ कहिये कि लक्ष्य के अनुसार ही कार्य की प्रकृति निर्धारित होती है। समाज-शास्त्रीय दृष्टिकोण से कार्य लक्ष्यविहीन नहीं होता है। इसलिए कार्यों की विवेचना के लिए यह आवश्यक है कि उनसे सम्बन्धित लक्ष्यों का निरूपण भी हो। लक्ष्य के साथ-साथ साधन भी कार्य का एक आवश्यक तत्व है। साधन वह उपकरण है जिसके द्वारा कार्य सम्पादित होता है। अतः क्रिया व्यवस्था में साधन और लक्ष्य दोनों ही महत्वपूर्ण हैं।

3. अन्तिम मूल्य - क्रिया के साधन और लक्ष्य किसी-न-किसी रूप में इन अन्तिम मूल्यों से सम्बन्धित व प्रभावित अवश्य ही होते हैं। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि प्रत्येक क्रिया इन्हीं मूल्यों की प्राप्ति के लिए निर्देशित होती है। श्री पारसन्स ने लिखा है, "क्रिया की किसी भी ठोस व्यवस्था में परिवर्तन की एक प्रक्रिया, जहाँ तक कि वह साध्य-साधन के स्वाभाविक सम्बन्ध के आधार पर प्रतिपादित क्रिया के तत्वों के सन्दर्भ में व्यवस्था-योग्य है, केवल उसी दिशा में आगे बढ़ सकती है जिस ओर उस व्यवस्था में कर्ताओं पर लागू समझे जाने वाले तर्कसंगत आदर्श की प्राप्ति सम्भव हो। अर्थात् अधिक संक्षेप में क्रिया की एक ऐसी प्रक्रिया केवल तार्किकता के मूल्य में वृद्धि की दिशा में ही आगे बढ़ सकती है"। इस कथन का तात्पर्य ही यह है कि प्रत्येक क्रिया में एक आदर्श या मूल्य अन्तः निहित रहता है और कर्ता उस मूल्य की प्राप्ति के लिए ही अपनी क्रिया को सम्पादित करता है। यह क्रिया जितनी ही अधिक तर्कसंगत होगी, वैज्ञानिक आधार पर उसे समझना उतना ही सम्भव होगा।

4. उद्योग या " प्रयत्न" - श्री पारसन्स ने स्वयं ही लिखा है कि यह क्रिया के आदर्शात्मक तथा अवस्थात्मक तत्वों को सम्बन्धित करने वाले कारक को सूचित करता है। जैसा कि अभी तक की विवेचना से स्पष्ट है कि क्रिया में एक आदर्श या मूल्य अन्तर्निहित होता है। साथ ही कर्ता को, व्यावहारिक समाज- व्यवस्था के अन्तर्गत, यह छूट कदापि नहीं दी जा सकती है कि वह जिस प्रकार से भी चाहे अपने आदर्शों, मूल्यों या लक्ष्यों की प्राप्ति कर सकता है। प्रत्येक कर्ता अगर मनमाने ढंग से क्रियाशील हो जाए तो समाज-व्यवस्था एक ही दिन में चकनाचूर होकर रहे। इसलिए समाज की ओर से कुछ शर्तें या अवस्थाएँ निर्धारित कर दी जाती हैं और कर्ता को उन्हीं अवस्थाओं के बीच रहते हुए क्रिया करनी पड़ती है। साथ ही कर्ता के साथ साधन भी असीमित नहीं होता है। साधन से एक निश्चित सीमा के अन्दर ही कर्ता कार्य करता है। इसी प्रकार विद्यमान अवस्थाओं" की सीमाओं के अंदर ही कर्ता को "आदर्श" या लक्ष्य की प्राप्ति के लिए 'प्रयत्न' करना पडता है। इस प्रकार 'प्रयत्न' वह कारक है जो कि आदर्श तथा व्यवस्था के बीच एक सम्बन्ध स्थापित करता है। इसीलिए श्री पारसन्स ने "प्रयत्न" को "क्रिया के आदर्शात्मक तथा अवस्थात्मक तत्वों को सम्बन्धित करने वाले कारक" की संज्ञा दी है।

श्री पारसन्स ने लिखा है कि प्रत्येक समाज में भौतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों की भिन्नता के अनुरूप कार्य-व्यवस्थाएँ भी अलग-अलग प्रकार की होती हैं। एक विशेष प्रकार की सामाजिक परिस्थितियों के अन्तर्गत क्रियाशील कर्ताओं की अन्तःक्रिया के फलस्वरूप ही सामाजिक व्यवस्था पनपती है, परन्तु पनप जाने पर वह व्यवस्था ही कर्ता की क्रियाओं को प्रभावित भी करती है।

चूँकि सामाजिक व्यवस्था के अन्तर्गत ही वे सामाजिक परिस्थितियाँ होती हैं जिनमें निवास करते हुए व्यक्ति कार्य करते हैं। स्मरण रहे कि सामाजिक परिस्थिति का एक निश्चित भौतिक पक्ष होता है और इस सामाजिक परिस्थिति में व्यक्ति का प्रवेश दो आधारों पर होता है- पद तथा कार्य। समाज में प्रचलित मान्यताओं के आधारों पर यह निश्चित होता है कि एक व्यक्ति की स्थिति या पद अन्य व्यक्तियों के बीच में क्या है? यह हो ही नहीं सकता है कि सामाजिक व्यक्ति सर्व प्रकार से स्थिति या पदविहीन हों। परिवार में उसकी स्थिति पिता, पुत्र, माता, पुत्री, पति या पत्नी है। कॉलेज में उसकी स्थिति विद्यार्थी है और कारखाने में उसकी स्थिति श्रमिक के रूप में है। प्रत्येक स्थिति या पद से सम्बन्धित कुछ कार्य भी होते हैं। पिता के कार्य पुत्र से पृथक् हैं, विद्यार्थी का कार्य वहीं नहीं है जो कि शिक्षक का है। एक ही व्यक्ति की एकाधिक स्थितियाँ हो सकती हैं और वह उन्हीं से सम्बन्धित कार्यों को करता है, अतः स्पष्ट है कि अपने समूह से व्यक्ति को एक स्थिति प्राप्त होती है जो कि उसकी क्रियाओं के निर्धारण में महत्वपूर्ण होती है।

सामाजिक परिस्थिति में प्रवेश करके व्यक्ति न केवल अपने पदों और कार्यों का ज्ञान प्राप्त करता है, बल्कि अन्य व्यक्तियों के पदों और कार्यों के सम्बन्ध में भी जानकारी हासिल कर लेता है। इसी से वह दूसरों के सम्भावित कार्यों का अनुमान लगा लेता है और अपने कार्य की दूसरों पर होने वाली प्रतिक्रिया को भी जान लेता है। इस प्रकार वह दूसरों की सम्भावित प्रतिक्रिया को दृष्टि में रखकर समाज द्वारा मान्य विधियों या साधनों की सहायता से अपने उद्देश्य या आवश्यकताओं की पूर्ति करने का प्रयत्न करता है। समाज द्वारा मान्य विधियों, व्यवहारों मूल्यों और आदर्शों का ज्ञान उसे सामाजिक परिस्थिति में रहकर समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा होता है। सामाजिक परिस्थिति से व्यक्ति का परिचय तथा क्रिया के सम्पादन के सम्बन्ध में श्री पारसन्स निम्नलिखित बातों को बताते हैं

1. जब एक बच्चा पैदा होता है तब उसमें सामाजिक अर्थ में कोई भी क्रिया करने की क्षमता नहीं होती है। यह क्षमता उसके सावयव के विकास के साथ-साथ उसे प्राप्त होती है। परन्तु इस प्रकार के मानसिक और शारीरिक विकास के लिए उसे दूसरे व्यक्तियों की सहायता की आवश्यकता होती है जो कि उस विकास प्रक्रिया के लिए आवश्यक साधनों को जुटाते रहे। दूसरे व्यक्तियों के सम्पर्क में आने से व्यक्ति के विचारों, भावनाओं, आदतों, प्रेरणाओं तथा मूल्यों का विकास होता है जो कि धीरे-धीरे उसके मनः शारीरिक आधारों पर समा जाता है और उसके व्यक्तित्व का निर्माण करता है। श्री पारसन्स ने सावयव, प्रेरणाओं तथा मूल्यों के सम्मिलित रूप को ही व्यक्तित्व की संज्ञा दी है और वह व्यक्तित्व यह आधारभूत तत्व है जिसके बिना क्रिया-व्यवस्था की कल्पना नहीं की जा सकती।

2. सामाजिक परिस्थिति में, जिससे कि व्यक्ति का परिचय व्यक्तित्व के विकास के साथ-साथ दृढ़तर होता जाता है, दो प्रकार के तत्व होते हैं एक तो सामाजिक तत्व और दूसरा असामाजिक तत्व। सामाजिक तत्व के अन्तर्गत व्यक्ति तथा व्यक्तियों से बने समूह आते हैं, जबकि असामाजिक तत्व के अन्तर्गत एक ओर भौतिक उपकरण और दूसरी ओर सांस्कृतिक विरासत जैसे आदर्श मूल्य प्रथा आदि सम्मिलित हैं।

3. प्रत्येक व्यक्ति के सावयव का संगठन एक प्रकार का नहीं होता है, जिसके फलस्वरूप एक ही सामाजिक परिस्थिति के प्रति प्रत्येक व्यक्ति की प्रतिक्रिया एक समान नहीं होती है।

4. एक सामाजिक परिस्थिति में एक आवश्यकता की पूर्ति के लिए केवल एक ही साधन या साध्य उपलब्ध होता है, ऐसी बात नहीं। वास्तव में, साधन और साध्य के अनेक विकल्प होते हैं। ये विकल्प सम्मिलित रूप में विभिन्न प्रतिमानों की रचना करते हैं। श्री पारसन्स ने इन्हें प्रतिमानात्मक विविधता कहा है।

5. क्रिया के विश्लेषण के लिए श्री पारसन्स ने "सन्दर्भ संरचना" की धारणा को विकसित किया है। सन्दर्भ संरचना के अन्तर्गत वे सभी तत्व आ जाते हैं जिनके सन्दर्भ में क्रिया को समझा जा सकता है।

उपर्युक्त विवेचना से स्पष्ट है कि सामाजिक क्रिया की शक्ति या प्रेरणा व्यक्ति को अपने ही सावयव से प्राप्त होती है। दूसरे शब्दों में शरीर ही क्रिया की प्रक्रिया को उत्पन्न करने वाला "प्रयत्न" कारक का अन्तिम स्रोत है, अर्थात् शरीर से ही वह 'प्रयत्न' शक्ति उत्पन्न होती है जो कि व्यक्ति को एक विशेष क्रिया करने को बाध्य करती है, क्योंकि शरीर ही इच्छाएँ रखता है और उसकी तृप्ति चाहता है। इस प्रकार क्रिया की प्रक्रिया शरीर से ही शक्ति लेती है। इस प्रकार पारसन्स के अनुसार सामाजिक क्रिया व्यवस्था के तीन पक्ष या आधार होते हैं-

1. व्यक्तित्व - व्यक्तित्व इच्छाओं आदि को जन्म देता है और उसकी पूर्ति या तृप्ति चाहता है और सामाजिक क्रिया इन्हीं इच्छाओं की पूर्ति करने के उद्देश्य से किए गए प्रयत्नों का ही फल होती है।

2. संस्कृति - सामाजिक क्रियाएँ शून्य में घटित नहीं होती हैं। व्यक्ति अपनी समस्त क्रियाओं को एक सांस्कृतिक व्यवस्था के अन्तर्गत रहकर तथा उस व्यवस्था से प्रभावित होते हुए ही करता है, परन्तु यह सांस्कृतिक व्यवस्था क्या है? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए श्री पारसन्स ने लिखा है कि प्रत्येक क्रिया की अपनी कुछ परिस्थितियाँ होती हैं। इन परिस्थितियों का व्यक्ति अपनी आशाओं के अनुसार कुछ विशिष्ट "अर्थ" लगाता है। ये अर्थ अधिक स्पष्ट होकर "चिन्ह" या प्रतीकों में विकसित हो जाते हैं। सामाजिक अन्तः क्रिया के दौरान ये "चिन्ह" या "प्रतीक और भी विकसित स्पष्ट तथा जनता द्वारा स्वीकृत हो जाते हैं और कर्ताओं के बीच आदान-प्रदान के साधन के रूप में काम आते हैं। जब ये सब चिन्ह या प्रतीक एक व्यवस्था में संयोजित हो जाते हैं, तब हम उसे सांस्कृतिक व्यवस्था कहते हैं। यह "सांस्कृतिक व्यवस्था" व्यक्ति की क्रिया को आधार तथा अर्थ प्रदान करते हैं।

3. सामाजिक व्यवस्था - सामाजिक क्रिया का तीसरा आधार या तत्व सामाजिक व्यवस्था है। सामाजिक व्यवस्था तब उत्पन्न होती है जबकि सामान्य अर्थों वाले सांस्कृतिक प्रतीकों की एक व्यवस्था के अन्तर्गत अनेक व्यक्ति अपनी इच्छाओं की प्राप्ति के लिए परस्पर सामाजिक अन्तः क्रियाओं में लगे होते हैं। दूसरे शब्दों में सामाजिक व्यवस्था का निर्माण परस्पर अन्तः क्रिया करते हुए अनेक व्यक्तियों द्वारा होता है। इस प्रकार की अन्तः क्रियाओं का कम से कम एक भौतिक या पर्यावरण सम्बन्धी पहलू होता है और इनका उद्देश्य अपनी इच्छाओं या आवश्यकताओं की आदर्श पूर्ति करना होता है। साथ ही इन अन्तः क्रियाओं में लगे हुए व्यक्तियों का पारस्परिक सम्बन्ध एक सांस्कृतिक व्यवस्था या स्वीकृत प्रतीकों द्वारा परिभाषित तथा संयोजित होता है। इस प्रकार सामाजिक व्यवस्था के अन्तर्गत अपनी इच्छाओं की पूर्ति करने के उद्देश्य में लगे हुए व्यक्तियों की अन्तः क्रियाओं का सम्पूर्ण क्षेत्र आ जाता है जो कि एक सांस्कृतिक व्यवस्था द्वारा संयोजित परिभाषित तथा संगठित होता है।

उपर्युक्त विवेचना से यह स्पष्ट है कि सामाजिक व्यवस्था सम्पूर्ण क्रिया व्यवस्था का केवल एक ही भाग है। यह सामाजिक व्यवस्था, क्रिया करने वाले व्यक्ति या व्यक्तियों के व्यक्तित्व की संरचना और सांस्कृतिक व्यवस्थायें तीनों मिलकर सामाजिक क्रियाओं की ठोस व्यवस्था का निर्माण करते हैं। सामाजिक क्रिया-व्यवस्था की ये तीनों व्यवस्थाएँ अर्थात्, व्यक्तित्व सम्बन्धी व्यवस्था एक दूसरे से सम्बन्धित तथा एक-दूसरे पर निर्भर है। प्रत्येक से प्रत्येक का काम दो के बिना कदापि नहीं चल सकता।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- समाजशास्त्र के उद्भव की ऐतिहासिक, सामाजिक, आर्थिक पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालिए।
  2. प्रश्न- समाजशास्त्र के उद्भव में सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
  3. प्रश्न- समाजशास्त्र के विकास में सोलहवीं शताब्दी से उन्नीसवीं शताब्दी तक के वैज्ञानिक चिन्तन के योगदान की समीक्षा कीजिए।
  4. प्रश्न- औद्योगिक क्रान्ति क्या है? इसके प्रमुख प्रभाव बताइए।
  5. प्रश्न- औद्योगिक क्रान्ति के प्रमुख प्रभाव बताइए।
  6. प्रश्न- औद्योगिक क्रान्ति के सामाजिक प्रभाव बताइये।
  7. प्रश्न- औद्योगिक क्रान्ति के आर्थिक प्रभाव बताइए।
  8. प्रश्न- औद्योगिक क्रान्ति के फलस्वरूप समाज व अर्थव्यवस्था पर क्या अच्छे प्रभाव हुए।
  9. प्रश्न- औद्योगिक क्रान्ति के फलस्वरूप समाज व अर्थव्यवस्था पर क्या बुरे प्रभाव हुए।
  10. प्रश्न- राजनीतिक व्यवस्था से क्या आशय है? भारतीय राजनीतिक व्यवस्था के निर्धारक तत्वों को बताइए।
  11. प्रश्न- भारतीय राजनीतिक व्यवस्था के निर्धारक तत्वों को बताइए।
  12. प्रश्न- औद्योगिक क्रान्तियों ने कैसे समाजशास्त्र की आधारशिला एक स्वतन्त्र अध्ययन के रूप में रखी? विवेचना कीजिए।
  13. प्रश्न- औद्योगिक क्रान्ति के क्या सामाजिक एवं राजनीतिक परिणाम हुये?
  14. प्रश्न- भारत में समाजशास्त्र के उद्भव एवं विकास को संक्षेप में समझाइये।
  15. प्रश्न- ज्ञानोदय से आप क्या समझते हैं। वैज्ञानिक पद्धति की प्रकृति और सामाजिक घटनाओं के अध्ययन में वैज्ञाकि पद्धति के प्रयोग का वर्णन कीजिए।
  16. प्रश्न- "समाजशास्त्र एक नवीन विज्ञान है।" विवेचना कीजिए।
  17. प्रश्न- फ्रांस की क्रान्ति से आप क्या समझते हैं?
  18. प्रश्न- समाजशास्त्र को परिभाषित कीजिये।
  19. प्रश्न- भारत में समाजशास्त्र का महत्व बताइये।
  20. प्रश्न- कॉम्ट के प्रत्यक्षवाद की विवेचना कीजिए।
  21. प्रश्न- कॉम्टे द्वारा प्रतिपादित चिन्तन की तीन अवस्थाओं के नियम की उदाहरण सहित व्याख्या कीजिए।
  22. प्रश्न- कॉम्टे की प्रमुख देन की परीक्षा कीजिये।
  23. प्रश्न- अगस्त कॉम्ट का जीवन परिचय दीजिए।
  24. प्रश्न- कॉम्ट के मानवता के धर्म का नैतिकता आधार क्या है?
  25. प्रश्न- संस्तरण के आधार अथवा सिद्धान्त बताइये।
  26. प्रश्न- समाजशास्त्र में प्रत्यक्षवादी पद्धतिशास्त्र की मुख्य विशेषतायें कौन-कौन सी हैं?
  27. प्रश्न- कॉम्ट के विज्ञानों का वर्गीकरण प्रत्यक्षवाद से किस प्रकार सम्बन्धित है?
  28. प्रश्न- कॉम्ट की प्रमुख देन की परीक्षा कीजिए।
  29. प्रश्न- प्रत्यक्षवाद क्या है?
  30. प्रश्न- कॉम्टे के प्रत्यक्षवाद को परिभाषित कीजिये।
  31. प्रश्न- तात्विक अवस्था क्या है?
  32. प्रश्न- सामाजिक डार्विनवाद से आपका क्या तात्पर्य है?
  33. प्रश्न- स्पेन्सर द्वारा प्रस्तुत 'सामाजिक उद्विकास' के सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए।
  34. प्रश्न- हरबर्ट स्पेन्सर का जीवन परिचय दीजिए।
  35. प्रश्न- हरबर्ट स्पेन्सर के 'सामाजिक नियन्त्रण के साधन' सम्बन्धी विचार बताइए।
  36. प्रश्न- स्पेन्सर द्वारा प्रतिपादित सावयवी सिद्धान्त की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
  37. प्रश्न- समाजशास्त्र के क्षेत्र में हरबर्ट स्पेन्सर के योगदान का उल्लेख कीजिए।
  38. प्रश्न- अधिसावयव उद्विकास की अवधारणा पर प्रकाश डालिए।
  39. प्रश्न- दुर्खीम के सामाजिक एकता के सिद्धान्त की विस्तृत विवेचना कीजिए।
  40. प्रश्न- यान्त्रिक व सावयवी एकता से सम्बन्धित वैधानिक व्यवस्थाएं क्या हैं?
  41. प्रश्न- दुर्खीम के श्रम विभाजन सिद्धान्त की आलोचनात्मक विवेचना कीजिए।
  42. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त को समझाइए।
  43. प्रश्न- समाजशास्त्र के विकास में दुर्खीम का योगदान बताइए।
  44. प्रश्न- दुर्खीम के आत्महत्या सिद्धान्त की आलोचनात्मक जाँच कीजिए।
  45. प्रश्न- दुर्खीम द्वारा वर्णित आत्महत्या के प्रकारों की विवेचना कीजिए।
  46. प्रश्न- दुर्खीम के आत्महत्या सिद्धान्त के महत्व पर प्रकाश डालिए।
  47. प्रश्न- 'आत्महत्या सामाजिक कारकों की उपज है न कि वैयक्तिक कारकों की। दुर्खीम के इस कथन की विवेचना कीजिए।
  48. प्रश्न- दुखींम का समाजशास्त्रीय योगदान बताइये।
  49. प्रश्न- दुखींम ने समाजशास्त्र की अध्ययन पद्धति को समृद्ध बनाया, व्याख्या कीजिए।
  50. प्रश्न- दुर्खीम की कृतियाँ कौन-कौन सी हैं? स्पष्ट कीजिए।
  51. प्रश्न- इमाइल दुर्खीम के जीवन-चित्रण तथा प्रमुख कृतियों पर प्रकाश डालिए।
  52. प्रश्न- कॉम्ट तथा दुखींम की देन की तुलना कीजिए।
  53. प्रश्न- श्रम विभाजन समझाइये।
  54. प्रश्न- दुर्खीम ने यान्त्रिक तथा सावयवी एकता में अन्तर किस प्रकार किया है?
  55. प्रश्न- श्रम विभाजन के कारण बताइए।
  56. प्रश्न- दुखींम के अनुसार श्रम विभाजन के कौन-कौन से परिणाम घटित हुए? स्पष्ट कीजिए।
  57. प्रश्न- दुर्खीम के पद्धतिशास्त्र की विशेषताएँ लिखिए।
  58. प्रश्न- श्रम विभाजन, सावयवी एकता से किस प्रकार सम्बन्धित है?
  59. प्रश्न- यान्त्रिक संश्लिष्टता तथा सावयविक संश्लिष्टता के बीच अन्तर कीजिए।
  60. प्रश्न- दुर्खीम के सामूहिक प्रतिनिधान के सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  61. प्रश्न- दुर्खीम का पद्धतिशास्त्र पूर्णतया समाजशास्त्री है। विवेचना कीजिए।
  62. प्रश्न- सामाजिक एकता क्या है?
  63. प्रश्न- आत्महत्या का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
  64. प्रश्न- अहम्वादी आत्महत्या के सम्बन्ध में दुर्खीम के विचारों की विवेचना कीजिए।
  65. प्रश्न- दुर्खीम के अनुसार आत्महत्या के कारणों की विवेचना कीजिए।
  66. प्रश्न- सामाजिक एकता पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  67. प्रश्न- सामाजिक तथ्य पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  68. प्रश्न- दुर्खीम द्वारा प्रतिपादित 'समाजशास्त्रीय पद्धति' के नियम क्या हैं?
  69. प्रश्न- दुखींम की सामाजिक चेतना की अवधारणा का उदाहरण सहित वर्णन कीजिए।
  70. प्रश्न- परेटो की वैज्ञानिक समाजशास्त्र की अवधारणा क्या है?
  71. प्रश्न- परेटो के अनुसार समाजशास्त्र की प्रमुख विशेषताएँ क्या हैं?
  72. प्रश्न- परेटो की वैज्ञानिक समाजशास्त्र की अवधारणा का वर्णन कीजिए।
  73. प्रश्न- पैरेटो ने समाजशास्त्र को एक तार्किक प्रयोगात्मक विज्ञान नाम क्यों दिया? उनकी तार्किक प्रयोगात्मक पद्धति की प्रमुख विशेषताओं की विवेचना कीजिए।
  74. प्रश्न- विशिष्ट चालक की अवधारणा का वर्णन कीजिए।
  75. प्रश्न- भ्रान्त-तर्क की अवधारणा स्पष्ट कीजिए।
  76. प्रश्न- "इतिहास कुलीन तन्त्र का कब्रिस्तान है।" इस कथन की विवेचना कीजिए।
  77. प्रश्न- पैरेटो की तार्किक एवं अतार्किक क्रियाओं की अवधारणा स्पष्ट कीजिए।
  78. प्रश्न- विलफ्रेडो परेटो की प्रमुख कृतियों के साथ संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  79. प्रश्न- विशिष्ट चालक का महत्व बताइए।
  80. प्रश्न- भ्रान्त-तर्क का वर्गीकरण कीजिए।
  81. प्रश्न- परेटो का समाजशास्त्र में योगदान संक्षेप में बताइए।
  82. प्रश्न- तार्किक और अतार्किक क्रिया की तुलना कीजिए।
  83. प्रश्न- पैरेटो के अनुसार शासकीय तथा अशासकीय अभिजात वर्ग की मुख्य विशेषताएँ क्या हैं?
  84. प्रश्न- कार्ल मार्क्स के 'ऐतिहासिक भौतिकवाद' से आप क्या समझते हैं?
  85. प्रश्न- मार्क्सवादी सामाजिक परिवर्तन की धारणा क्या है? समझाइए।
  86. प्रश्न- मार्क्स के अनुसार वर्ग संघर्ष का वर्णन कीजिए।
  87. प्रश्न- मार्क्स के विचारों में समाज में वर्गों का जन्म कब और क्यों हुआ?
  88. प्रश्न- मार्क्स ने वर्गों की सार्वभौमिक प्रकृति को कैसे स्पष्ट किया है?
  89. प्रश्न- पूर्व में विद्यमान वर्ग संघर्ष की धारणा में मार्क्स ने क्या जोड़ा?
  90. प्रश्न- मार्क्स ने 'वर्ग संघर्ष' की अवधारणा को किस अर्थ में प्रयुक्त किया?
  91. प्रश्न- मार्क्स के वर्ग संघर्ष के विवेचन में प्रमुख कमियाँ क्या रही हैं?
  92. प्रश्न- वर्ग और वर्ग संघर्ष की विवेचना कीजिए।
  93. प्रश्न- पूँजीवादी समाज में अलगाव की स्थिति तथा इसके कारकों की विवेचना कीजिए।
  94. प्रश्न- संक्षेप में अलगाव के स्वरूपों को समझाइये।
  95. प्रश्न- मार्क्स ने पूँजीवाद की प्रकृति के विनाश के किन कारणों का उल्लेख किया है?
  96. प्रश्न- पूँजीवाद में ही वर्ग संघर्ष अपने चरम सीमा पर क्यों पहुँचा?
  97. प्रश्न- मार्क्स के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के सिद्धान्त की समीक्षा कीजिए।
  98. प्रश्न- 'कार्ल मार्क्स के अनुसार ऐतिहासिक भौतिकवाद की व्याख्या कीजिए।
  99. प्रश्न- ऐतिहासिक भौतिकवाद की व्याख्या कीजिए।
  100. प्रश्न- मार्क्स के ऐतिहासिक युगों के विभाजन को स्पष्ट कीजिए।
  101. प्रश्न- मार्क्स के ऐतिहासिक सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  102. प्रश्न- द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद से आप क्या समझते हैं? व्याख्या कीजिये।
  103. प्रश्न- समाजशास्त्र को मार्क्स का क्या योगदान मिला?
  104. प्रश्न- मार्क्स ने समाजवाद को क्या योगदान दिया?
  105. प्रश्न- साम्यवादी समाज के निर्माण के लिये मार्क्स ने क्या कार्य पद्धति सुझाई?
  106. प्रश्न- मार्क्स ने सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या किस तरह से की?
  107. प्रश्न- मार्क्स की सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या में प्रमुख कमियाँ क्या रहीं?
  108. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के बारे में मार्क्स के विचारों को स्पष्ट कीजिए।
  109. प्रश्न- कार्ल मार्क्स का संक्षिप्त जीवन-परिचय तथा प्रमुख कृतियों का वर्णन कीजिए।
  110. प्रश्न- द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
  111. प्रश्न- द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की मुख्य विशेषताएँ बताइये।
  112. प्रश्न- सामाजिक विकास की विभिन्न अवस्थाएँ क्या हैं?
  113. प्रश्न- वर्ग को लेनिन ने किस तरह से परिभाषित किया?
  114. प्रश्न- आदिम साम्यवादी युग में वर्ग और श्रम विभाजन का कौन सा स्वरूप पाया जाता था?
  115. प्रश्न- दासत्व युग में वर्ग व्यवस्था की व्याख्या कीजिए।
  116. प्रश्न- सामंती समाज में वर्ग व्यवस्था का कौन-सा स्वरूप पाया जाता था?
  117. प्रश्न- फ्रांस की क्रान्ति के महत्व एवं परिणामों की विवेचना कीजिए।
  118. प्रश्न- कार्ल मार्क्स के इतिहास दर्शन का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिए।
  119. प्रश्न- कार्ल मार्क्स के अनुसार वर्ग की अवधारणा की विवेचना कीजिए।
  120. प्रश्न- मार्क्स द्वारा प्रस्तुत वर्ग संघर्ष के कारणों की विवेचना कीजिए।
  121. प्रश्न- समाजशास्त्र के संघर्ष सम्प्रदाय में मार्क्स और डेहरनडार्फ की तुलना कीजिए।
  122. प्रश्न- मार्क्स के विचारों का मूल्यांकन कीजिए।
  123. प्रश्न- "हीगल ने 'आत्म-चेतना' के अलगाव की चर्चा की है जबकि मार्क्स ने श्रम के अलगाव की।" स्पष्ट कीजिए।
  124. प्रश्न- मार्क्स के राज्य सम्बन्धी विचारों को स्पष्ट कीजिए।
  125. प्रश्न- कार्ल मार्क्स के ऐतिहासिक भौतिकवाद के आवश्यक लक्षणों की आलोचनात्मक परीक्षा कीजिए।
  126. प्रश्न- सामाजिक विकास की विभिन्न अवस्थाएँ क्या हैं?
  127. प्रश्न- सर्वहारा क्रान्ति की विशेषताएँ बताइये।
  128. प्रश्न- मार्क्स के अनुसार अलगाववाद के लिए उत्तरदायी कारकों पर प्रकाश डालिए।
  129. प्रश्न- मार्क्स का आर्थिक निश्चयवाद का सिद्धान्त बताइये। 'सामाजिक परिवर्तन' के लिए इसकी सार्थकता बताइए।
  130. प्रश्न- सत्ता की अवधारणा स्पष्ट कीजिए। सत्ता कितने प्रकार की होती है?
  131. प्रश्न- मैक्स वेबर द्वारा वर्णित सत्ता के प्रकारों की व्याख्या कीजिए।
  132. प्रश्न- मैक्स वेबर के अनुसार समाजशास्त्र को परिभाषित कीजिए।
  133. प्रश्न- वेबर के धर्म का समाजशास्त्र क्या है? बताइए।
  134. प्रश्न- आदर्श प्रारूप की धारणा का वर्णन कीजिए।
  135. प्रश्न- मैक्स वेबर के "पूँजीवाद की आत्मा' सम्बन्धी विचारों की संक्षिप्त व्याख्या कीजिये।
  136. प्रश्न- वेबर के समाजशास्त्र में योगदान पर एक लेख लिखिये।
  137. प्रश्न- मैक्स वेबर का संक्षिप्त जीवन-परिचय दीजिए।
  138. प्रश्न- मैक्स वेबर की धर्म के समाजशास्त्र की कौन-कौन सी विशेषताएँ हैं? स्पष्ट करें।
  139. प्रश्न- मैक्स वेबर की प्रमुख रचनाएँ बताइए।
  140. प्रश्न- मैक्स वेबर का पद्धतिशास्त्र क्या है? इसकी विशेषताएँ बताइये।
  141. प्रश्न- वेबर का धर्म का सिद्धान्त क्या है?
  142. प्रश्न- मैक्स वेबर के आदर्श प्रारूप पर टिप्पणी लिखिए।
  143. प्रश्न- प्रोटेस्टेण्ट आचार क्या है? व्याख्या कीजिए।
  144. प्रश्न- मैक्स वेबर के सामाजिक क्रिया सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए।
  145. प्रश्न- सामाजिक विचार के सन्दर्भ में मैक्स वेबर के योगदान का परीक्षण कीजिए।
  146. प्रश्न- शक्ति की अवधारणा की विवेचना कीजिए।
  147. प्रश्न- दुर्खीम एवं वेबर के धर्म के सिद्धान्त की तुलना आप किस तरह करेंगें?
  148. प्रश्न- सामाजिक विज्ञान की पद्धति के निर्माण में मैक्स वेबर के योगदान का वर्णन कीजिए।
  149. प्रश्न- वेबर द्वारा प्रस्तुत 'सामाजिक क्रिया' के वर्गीकरण का परीक्षण कीजिए।
  150. प्रश्न- अन्तः क्रिया का क्या अर्थ है? अन्तःक्रिया के प्रकारों का उल्लेख करिये।
  151. प्रश्न- प्रतीकात्मक अन्तः क्रियावाद क्या है? प्रतीकात्मक अन्तर्क्रियावादी सिद्धान्त की मान्यताएँ समझाइये।
  152. प्रश्न- जार्ज हरबर्ट मीड का प्रतीकात्मक अन्तः क्रियावाद बतलाइये।
  153. प्रश्न- मीड का भूमिका ग्रहण का सिद्धान्त समझाइये।
  154. प्रश्न- प्रतीकात्मक का क्या अर्थ है?
  155. प्रश्न- प्रतीकात्मकवाद की विशेषताएँ बताइये।
  156. प्रश्न- प्रतीकों के भेद या प्रकार बताइये।
  157. प्रश्न- सामाजिक जीवन में प्रतीकों का क्या महत्व है?
  158. प्रश्न- टालकॉट पारसन्स का संक्षिप्त परिचय देते हुए उनकी कृतियों का उल्लेख कीजिये।
  159. प्रश्न- टालकाट पारसन्स का "सामाजिक क्रिया" का सिद्धान्त प्रस्तुत कीजिये।
  160. प्रश्न- टालकॉट पारसन्स का सामाजिक व्यवस्था सिद्धान्त का वर्णन कीजिये।
  161. प्रश्न- आर. के. मर्टन का संक्षिप्त जीवन परिचय व रचनाएँ लिखिए।
  162. प्रश्न- आर. के. मर्टन की आर्थिक और सामाजिक पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालिये।
  163. प्रश्न- आर. के. मर्टन की बौद्धिक पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालिये।
  164. प्रश्न- मध्य-अभिसीमा सिद्धान्त का अर्थ व प्रकृति को समझाइये।
  165. प्रश्न- आर. के. मर्टन का "प्रकट एवं अव्यक्त कार्य सिद्धान्त को समझाइये।
  166. प्रश्न- टॉलकाट पारसन्स के पैटर्न वैरियबल की चर्चा कीजिये।

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